Monday 14 December 2020

'लोकतंत्र की चप्पल' ( व्यंग्य )

 



  'लोकतंत्र की चप्पल'

( व्यंग्य )



दरणीय कक्का,
चरणों में प्रणाम स्वीकारिए!

हाल-चाल कुशल-मंगल है। हस्तिनापुर की गर्मी बड़ा पसीना बहा रही है। वैसे गांधारी काकी कुंती बहन के साथ मज़े में हैं। परंतु चार दिन पहले गांधारी काकी को एकठो सपना आया रहा और ऊ रतिया में उठकर चिल्लाय पड़ीं! 
"गो कोरोना जो!"
"गो कोरोना जो!"
"का बताएं!" 
"हम तो चौंधिया के उठ बैठे!"
हमने काकी को बहुत समझाया कि हमें कउनो ख़तरा नाही है ऊ कोरोना से। हम तो मंत्री जी के बँगले पर हैं। परंतु ऊ नाही मानीं और कहने लगीं कि उन्हें पटना जाना है कउनो क़ीमत पर। हम भी का करते भागे ससुर हस्तिनापुर रेलवे स्टेशन की तरफ़ मुफ़त वाले टिकट के लिए जहाँ पहुँचकर पता चला कि टिकट कउनो मुफ़त-वुफत में नाही मिल रहा बल्कि वहाँ तो धृतराष्ट्र बाबा का फ़रमान रहा कि ससुर एक-एक प्रजा से चवन्नी तक वसूला जाए मगध पहुँचने पर मगधनरेश से। औरे यदि मगधनरेश कउनो प्रजा के टिकट का पइसा न चुका पाए तो उस प्रजा का कच्छा तक नीलाम कर दिया जाए हस्तिनापुर के करनॉट प्लेस पर शाम के पहरे! अंत में हमरे बहुत समझाने पर गांधारी काकी मान गईं और अपना डेरा-तम्बू अभी तक हस्तिनापुर के कन्हैयापुर में गाड़े पड़ी हैं।                   
               आगे ख़बर बड़ा दुखद है! कल हमरा धमाकेदार चप्पल टूट गया रहा। ससुर मोची की सघन तलाश हस्तिनापुर के जंगलों में ढिबरी-बत्ती लेकर की गई परंतु सब बेकार गया। अंत में ले-देके एकठो मरियल-सा मोची दिखाई दिया जो टुकड़े-टुकड़े गैंग वाले विश्वविद्यालय के गेट पर बैठा रहा। ससुरा शक्ल से ही कम्युनिष्ट लग रहा था! 
और रह-रहकर समता मूलक समाज के नारे भी लगा रहा था। बात किया तो पता चला, जन्मेजय साहेब उसकी लड़ाई सत्तर बरस से कोरट मा लड़ रहे हैं। मसला कुछ ई रहा कि,

पिता धृतराष्ट्र पुत्रमोह में आकर पूरा हस्तिनापुर उजाड़ने पर तुले हुए हैं! बीच-बीच में वह मरियल मोची पुरानी बिसलेरी की बोतल से मुन्सिपलिटी के सौजन्य से लगाए गए टुटपुँजिया नल का पानी पी-पीकर मामा शकुनी को भी दस-पाँच गाली रशीद करता चला जा रहा था। 

     आइए! अब आपको सीधे ले चलते हैं हस्तिनापुर के झटपट दरबार में। बने रहिए मेरे साथ। 
नमस्कार! 
मैं राजा कवीश कुमार, 
       "सत्ता जब बहरी हो जाए तो भूखी-नंगी जनता का चिलचिलाती धूप में सड़कों पर इस महामारी के कठिन दौर में निकलना लाज़मी हो जाता है। जहाँ एक तरफ़ हस्तिनापुर राज्य में फल-सब्ज़ियों की दुकानें ठेलों,शॉपिंग मॉलों से उठकर मंदिरों और मस्ज़िदों में पलायन कर गईं! हमारे विशेष संवाददाता ने बताया है कि राष्ट्रहित में  फल और सब्ज़ियों की ख़रीद-फरोख़्त में अब ए.टी.एम. की जगह आधारकार्ड धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है और वहीं हस्तिनापुर के देशभक्त 'कोरोना प्यारी महामारी' के आतंक से सफ़ेदपोश मुँह पर  नक़ाब पहनकर राज्य के मैख़ानों में घूम रहे हैं! 

     उधर बाबा धृतराष्ट्र जहाँ एक तरफ़ इस विकट 'महामारी कोरोना प्यारी' की चोली खींच रहे हैं और अपनी भूखी-नंगी जनता को राजकोष ख़ाली हो जाने का हवाला देते नज़र आ रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ हस्तिनापुर का प्राचीन, भव्य-भवन मुगल-ए-आज़म द्वारा बनाए जाने की बात कह उसे ज़मीं-दोज़ कर नये मल्टीप्लेक्स राजभवन का निर्माण कराने का मसौदा बापू के तीनों बंदरों के बीच रखते नज़र आ रहे हैं। 

       चिंता की बात यह है कि, बापू के ये प्यारे तीनों बंदर आजकल थोबड़े की किताब पर मस्त हैं या तो ट्विटर हैंडल पर पस्त हैं। इतनी व्यस्तता के चलते ये बंदर बाबा धृतराष्ट्र के मसौदे की बारीकियाँ समझने में अक्षम से प्रतीत होते हैं जबकि परम-पूज्य बाबा धृतराष्ट्र ने अपने हर-फ़न-मौला ट्विटर हैंडल के माध्यम से बिना समय गँवाए साफ़तौर पर प्रजा को यह बताया है कि नया मल्टीप्लेक्स राजभवन को बनाने में बीस हज़ार करोड़ चिल्लर डॉलर राज्य के प्रजा की गाढ़ी कमाई का ख़र्च बैठेगा और दूसरी तरफ़ राजतंत्र के कुनबे के अर्धनग्न कर्मचारियों के विभिन्न मदों वाले भत्ते काटे जाएंगे। 

       प्रजा और राज्य का भार सँभालने वाले परम प्रतापी, सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के सफ़ेदपोश वंशज सदृश,शास्त्री जी की खादी टोपी पहनने वाले और राज्य के भूखी-नंगी प्रजा को टोपी पहनाने वाले अतिविशिष्ट नागरिकों के वेतन-भत्ते में इज़ाफ़ा  किया जाएगा, और दुर्योधन के पाँच-सौ-दो पताका छाप जाँघिए का पैसा ग़रीब प्रजा के हित में डाला जाएगा!

 बाबा धृतराष्ट्र ने गोद लिए न्यूज़ चैनल को बताया-
"हम ग़रीब प्रजा का दर्द भली-भाँति समझते हैं इसलिए हमने इस 'महामारी कोरोना प्यारी' से निपटने का उपाय ढूँढ निकाला है!"
"अब हम रेड-जोन में आने वाले छोटे राज्यों में एक-एक तालाब खुदवाएंगे और उसमें गाँधी के डांडी-यात्रा वाला नमक स्वादानुसार मिलवाएंगे।"
"राज्य के प्रत्येक नागरिक को मिर्चा खाना मना होगा जिसके लिए हम 'रैपिड ऐक्शन बल' की दस हज़ार टुकड़ियाँ भेजेंगे ताकि पानी का समुचित बँटवारा किया जा सके!"
"अनाज से बनी दारू विदेशों में दवा के तौर पर भिजवाई जाएगी जिससे कि हमारे मित्र-राष्ट्रों की संख्या में दिनों-दिन इज़ाफ़ा हो सके।"

"अरे भई,चप्पल सिल गई कि पूरी महाभारत हमें यहीं सुना दोगे!"

"अरे साहब, हम ग़रीब आपको क्या सुनाएँगे! हम तो ई भूखमरी में अपने ही पेट की आवाज़ तक नहीं सुन पाते। ससुर दिनभर गैस बना करती है! लो बाबू जी, हो गई तैयार तुम्हरी 'लोकतंत्र की चप्पल'! घिसो इसे 'पाँच बरस' हस्तिनापुर के जनपथ पर!"    


Wednesday 20 May 2020

जागते रहो! ( व्यंग्य )




जागते रहो! ( व्यंग्य




          का बात करते हो सेठ जी, लोकतंत्र में रोटी तो नाहीं मिल रही और तुम फ़्राईड चावल की बात करते हो!
हमें अच्छी तरह याद है, साहेब ने कहा था, "हमारे गल्ला-गोदाम में दोनों बख़त ख़ातिर अनाज ठूँस-ठूँसकर भर दिया गया है और चूहे वहाँ से गाँव की तरफ़ पलायन कर गए हैं।" 

जबकि अभी कल ही एक न्यूज़ चैनल पर ख़बर बाँचनेवाले ख़बरबाँचिए दिखा रहे थे कि दस-पंद्रह चूहे गल्ला-गोदाम के बाहर मृत अवस्था में पाए गए हैं।

         जबकि एक पुलिसवाला तो कहते-कहते रो पड़ा कि चूहों की मौत भूख से तड़प-तड़पकर हो गई रही जैसा कि पोस्टमॉर्टम-रिपोर्ट में लिखा गया है! उधर पोस्टमॉर्टम करने वाले डॉक्टर बता रहे थे कि भूख की वज़ह से इन चूहों की अतड़ियों में घाव बन गए थे जिससे कि इनमें रक्त के थक्के जम गए। 

अब हम ठहरे कोरे अनपढ़! "न आगे नाथ न पीछे टिड्डी", का करेंगे इस बेकार पढ़ाई-लिखाई का?
 "पैदा हुए, बाप ने अँगूठा लगा दिया।" 
"बाप मरे, हमने अँगूठा लगा दिया।" 
"जब हम मरेंगे, बेटा अँगूठा टिका देगा।" 

अब चूहे मरे कैसे? ई तो साहेब जी और उनके पिट्ठू लोग जानें! बड़े नेकदिल थे बेचारे, कहते थे यदि अँगूर में सुई चुभो दी जाए तो किशमिश बन जाता है और वो भी दुइ हफ़्तों में। 

            ससुर हम भी सोचे कि ई तो अमीर बनने का बड़ा ही नायाब तरीक़ा है। बताइए, अस्सी रुपए किलो अँगूर से चार-सौ रुपए किलो किशमिश झटपट तैयार! गपागप हमने भी दस किलो अँगूर में भरी दुपहरी सुइयाँ चुभों डालीं और छोड़ दिए कड़ी धूप में कोयले को हीरा बनने ख़ातिर। अब जो होना था वो तो होकर रहेगा, सो गया दिनभर के लिए घोड़ा बेचकर। 
अब हमारे कान में थोड़े न आकाशवाणी हो रही थी "मौसम आज बड़ा बेईमान होगा कृपया अपने-अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करें! अब बेईमान था तो था, दिखा दिया अपना बेईमानीपन! हमरे सारे अँगूर लँगूर की शक़्ल के दिखने लगे और तो और, दो-तीन दिन में उनसे बास भी आने लगी। 

         अब यदि मौसम ससुर बेईमान निकला तो इसमें साहेब जी का क्या दोष! दोष तो सारा हमरा रहा, चले थे हफ़्तेभर में सितार-ए-हिंद बनने! 

इतिहास उठाकर देख लीजिए, नहीं तो टुकड़े-टुकड़े गैंग वालों की लाइब्रेरी से पोथी निकालकर पढ़ लीजिए। हो सकता है उलट-फेर हुआ हो इतिहास की लाइब्रेरी में, परन्तु यह खेला हम काहे करें भाई? हमारी कौन सी भैंसिया बिकी जा रही थी!
अब फ़िरंगियों ने मुग़लों पर आक्रमण किया कि मुग़लों ने हिंदू राजाओं पर या हिंदू राजाओं ने बौद्धिष्टों पर, ये तो समय ही जाने। 

 "मैं समय हूँ।"
"मानव की भूख से लेकर उसकी चिर-निद्रा तक, उसकी चिर-निद्रा से लेकर उसके जागने तक मैं निरंतर ब्रह्मांड में कलैया खाता रहता हूँ, न ही मेरा कोई आदी है और न ही अदरक, और न ही कोई दूध वाली चाय जिसकी देश में उत्पादन से ज़्यादा सप्लाई है।"  अरे, इसमें कौन सी बड़ी बात है, बस सफ़ेदी का चमत्कार और लगातार उतारते जाओ नौनिहालों के मुँह में ताबड़तोड़! अब एक से दो साल का बच्चा का बताएगा कि गोरस का स्वाद कैसा होता है।  

          कान खोलकर सुन लीजिए, बनारसी भँगेड़ी हूँ, भाँग बहुत खाता हूँ। यक़ीन न आए तो आँखें चेक कर लीजिए, लाल ही दिखेंगी, सूर्यास्त के बाद भी। पाश्चात्य सभ्यता के कट्टर-विरोधी जो ठहरे, देशी पीकर मर जाएंगे उसी दशाश्मेध घाट पर परंतु इंग्लिश, हाथ टूट जाए जो मुँह से तनिक भी बास आए। 

यदि हमपर पूर्णतः विश्वासमत न हो तो पूछ लीजिए हमरे बगल वाले जिला-जौनपुर के प्राइमरी पाठशाला के हेडमास्टर साहेब से, बड़े ही धर्मात्मा मनई हैं। बताइए, हज़रत की करामात! पाठशाला के बच्चों को दूध कम न पड़ जाए, पानी में ही दूध मिलाते देखे गए, और खाने में रोटी के साथ नमक़ मुफ़्त। 

     अब बताइए, यहाँ ज़हर खाने के पैसे भी आपको कोई न दे और वहाँ ये महात्मा नमक़ मुफ़त में बाँट रहे थे। हम आपको सौ-प्रतिशत गारंटी दे सकते हैं कि ई सब राजा साहेब के शिक्षा के क्षेत्र में बढ़-चढ़कर प्रचार-प्रसार करने से हुआ है नहीं तो एक समय था जब यहाँ की भैंसिया भी "काला अक्षर भैस बराबर'' पढ़ा करती थीं।
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बताइए, एक वो ज़माना था जब मुग़लों के दरबार में नवरत्नों की बड़ी पूँछ हुआ करती थी, और आज ये दिन ईश्वर हमें दिखाने पर तुला हुआ है कि राजा साहेब के सगे-संबंधी राजकोष से उधार क्या ले लिए कि राज्य के सारे एक नंबर के अफ़ीमची उन्हें 'द ग्रेट दरुअल' बताने लगे। 

      ख़ैर, वो तो भला हो उस केवट महाराज का जिसने सावन की उस घोर-डरावनी रात में उन्हें सीमा-पार उनके जन-धन खाते-पीते सहित राजा साहेब के गुप्त-कालीन गुप्त-गुफा में ले जाकर बैठा दिया। 

अरे हम कहते हैं, देश पूछता है, ऊ चोर-उचक्का नहीं थे। ससुरे मुहरबंद रहे! हम तो कहते हैं राजा साहेब राज्य में नौ-ठो रत्न नहीं अठारह-सौ रतन रखिए!
उनके फिक्स डिपॉज़िट करवाईए! 
उनके जन-धन खाते खुलवाईए!
उन्हें सस्ती सब्सिडी वाली गैस मुहैया करवाईए!

और तो और राज्य के मंत्रिमंडल में उन्हें किसी विभाग का मंत्री ही बना दीजिए, फिर देखिए उनमें कैसी फ़कीरी दिखती है और वे कैसे भागते हैं किसी गुप्त-कालीन गुप्त-गुफा में! अरे, इस्तेमाल करके तो देखिए फिर विश्वास करिएगा नहीं तो। 

    हम तो यहाँ तक कहन रहेंन, लाल कुर्ती ख़रीद दो, ट्रेनें रुकवा देंगे। राज्य में इंटरनेट बंद करवा दो, दुइ मिनट में मुग़ल-ए-हिंदू करवा देंगे। आप चिंता काहे करते हो, तनिक गाजर-मूली की तरह कटकर सलाद तो बनने दो। हुज़ूर फेस आइडेंटिफिकेशन करवा देंगे। तनिक क्रोनोलॉजी समझिए साहेब!

भरोसा रखिए, सत्तर के दशक में भी समाजवाद उसी टीले पर खड़ा था जहाँ परसाई जी उसे डांट-डपटकर छोड़ आए थे और आज भी वहीं खड़ा-खड़ा मक्खियाँ उड़ा रहा है!  ससुर हिम्मत ही नहीं हुई उसकी कि तनिक भी दायें-बायें करे। 

          अब गारंटी का ज़माना तो चला गया परंतु आपको हम वारंटी का वादा अवश्य दे सकते हैं कि हमारा भविष्य और हमारी चुलबुली अर्थव्यवस्था दोनों ही अब ज़िम्मेदार हाथों में है। हाँ, वो अलग बात है कभी-कभी लड़खड़ा सकती है। वो क्या है कि पीने के बाद मियाँ झुम्मन अपने होश-ए-मुशायरा ज़रा खो देते हैं। परंतु अब हमारी अर्थव्यवस्था बिटिया के दोनों पैर और कोमल हाथ कुल घी-भरे कढ़ाई में डूबे पड़े हैं। 

राजा साहेब भी लाल कॉर्पेट पर सुबह-सुबह टहलते हुए यू-ट्यूब के प्राइम-टाइम पर कुमार साहेब को देख ही लिया करते हैं और धीरे से अपने मन की बात आकाशवाणी को बता दिया करते हैं। ताज़्जुब तो हमें तब होता है जब वे सहयोगियों से ज़्यादा विरोधियों के यू-ट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करके बेल-आइकॉन धपाक से दबाते हैं। 

   हमको तो सदैव चिंता लगी रहती कि उन चूहों के भुखमरी का केस कहीं विपक्ष वाले आत्महत्या में ना बदल दें, और उधर राजा साहेब भी कभी-कभी अज़ीबो-ग़रीब बीहेव करते हैं। कहते हैं "कर्म करते जाओ, फल की इच्छा हमारे संत्री पर छोड़ दो, ऊ ससुर सब संभाल लेगा, उसकी क्रोनोलॉजी बड़ी अच्छी है और यही जीवन का मर्म-गीत है।"

फिर भी हम न माने, हमने बहुत कहा राजा साहेब से कि उन ससुरे चूहों का शव यहीं मणिकर्णिका पर ही जलाएं परंतु उन्होंने साफ़ कह दिया कि इस संक्रमण की अवस्था में हम कोई भी रिस्क नहीं लेना चाहते अतः इन नामुराद चूहों के शवों को यहीं पास के गटर वाली नाली में बहा दो!

     जब मैं उन चूहों को नाली में फेंक रहा था तो उनमें से एक चूहे की नाड़ी अभी तक चल रही थी। मैंने सोचा कि इसके इलाज़ हेतु एम्बुलेंस मंगवा लेते हैं परंतु उस राष्ट्रविरोधी अधमरे चूहे ने मेरी अँगुली जमकर काट ली! आनन-फानन में मैंने उसे भी नाली में फेंक दिया और वह अपने आगे के दो-दाँत मुस्कराकर मुझे दिखाता हुआ स्वयं ही नाली में डूब गया!                                                                 


                                                                

Saturday 9 May 2020

आवाज़ मैं न दूँगा! ( व्यंग्य )






आवाज़ मैं न दूँगा! ( व्यंग्य )


ससुर आवाज़ के चक्कर में कितनों ने अपनी आवाज़ गँवाई! कितनों की आवाज़ दबाई गई, और जो न दबाई जा सकी उसका भी हमारे हज़रत ने क्या ख़ूब सोल्यूशन निकाला! 

"बाबू मोशाय.....!" 
       "पटरी और परिवर्तन दोनों पर कभी भी प्रगति की रेल आ सकती है!" संभलना तो आपको है क्योंकि एक तो रोज़ संभाली और बक़ायदा ठोकी-कसी जाती है, हथौड़ी-छेनी से। 
दूसरी, यदि न संभली तो ज़माना उसे काफी नज़दीक से संभलना सीखा देता है। 

अब अपने चिंतामणि महतो को ही ले लीजिए, ज़नाब रेलवे की स्लीपर बोगी में खाने की शिकायत लेकर अतिनिर्भीक वेंडर महोदय से उलझ पड़े। 
बात हाथा-पाई तक आ पहुँची। पड़ोसी यात्रियों ने मामले को बढ़ता देख लोकतंत्र की तरह मसले को दबाने की भरपूर कोशिश की परंतु चिंतामणि महतो के बाग़ी तेवर देख सबने अपनी-अपनी सीट; चुपचाप चुनाव के हारे हुए और फर्ज़ी वोटरों की तरह लतियाए गए निरपराध एवं निर्जीव हो चुके प्राणी के समान ग्रहण की। 

    तभी लोकतंत्र की प्रखर आवाज़ को और प्रखरता के साथ बुलंद करते हुए एक सीट वाले कुर्सी पर बैठे तीन महानुभावों में से बीच वाले यात्री महोदय ने आवाज़ लगाई-
"वाह!"
"क्या बात है साहब!"
"बड़े दिनों बाद ऐसे क्रांतिकारी विचारों को सुन रहा हूँ, नहीं तो मजाल है कोई भी ऐरा-ग़ैरा इस सड़ी-गली ध्वस्त हो चुकी सरकारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करे!"   
"मियाँ आप तो रियल हीरो लगते हो!"
"बताइए!"
"चावल और पनीर की करी से 'बाल की खाल' नोच डाले।"
"और रुमाली रोटी को तान-तानकर ट्यूब का टुकड़ा बना डाला!"
"बताइए, सरकारी तंत्र की ऐसी फ़जीहत!"
"माशा अल्लाह!"
"सच बताऊँ तो आपमें उस हॉलीवुड वाले 'कप्तान अमेरिका' वाले नायक की झलक उभरती है!"

     इतना कहकर उस यात्री महोदय ने देश की घिसी-पीटी अर्थव्यवस्था के समान अपनी बत्तीसी निपोड़ दी। महोदय जी की बत्तीसी देखकर लोकतंत्र के महानायक चिंतामणि महतो जी का लगभग आधा लीटर ख़ून मानो म्युनिसिपल्टी द्वारा गली-मोहल्ले में लगाए गए बूढ़े हो चुके हैण्डपम्प के पानी के समान वहीं घटनास्थल पर ही सूख गया हो!

अब वैसे भी, सूखे होते तालाब और मृत्यु की गोद में पड़ी अंतिम श्वास लेती पुरा-पुरातन नदियों की फ़िक्र ही किसे है। 
   हाँ, मंत्रालय बनवा दो! कम से कम उन ग़रीब ए.सी. वालों के घरों में दो बख़त का पिज़्ज़ा तो आएगा। परंतु परिस्थिति बड़ी विकट है! इस कोरोना करमजली ने इन बेचारे पिज़्ज़ा-बर्गर उपभोक्ताओं और, डार्लिंग आज कहीं -किसी पंच-सितारा होटल में चलें, बैंगन का भुर्ता खाने। बड़ा दिन हो गया है उस कम्बख़त मुर्ग़े की टाँग निचोड़े!
 नाशुकरा कहीं का, हमेशा क्रांतिकारी मसलों को लेकर चौराहों पर बाँग दिया करता था। 

 "क्यों डार्लिंग!"
"क्या कहते हो?"
"अरे कहूँगा क्या!"

    कलक्टर नहीं था तब तक तो वही शांताराम के ढाबे पर रोटियाँ तोड़ता था और कभी-कभी रात में तगड़ी भूख लगने पर पेट पर कसकर अपना फटा गमछा बाँध लिया करता था परंतु पढ़ाई रातभर किया करता था ताकि आज का यह पंच-सितारा वाला दिन देख सकूँ। 
आख़िर मुद्दा वही फटा-पुराना, देश के उन नामी-गिरामी राज्यों से जहाँ हर दूसरा छात्र लाख परेशानियाँ झेलते हुए आख़िर कलक्टर तो बन ही जाता है परंतु यह माजरा क्या है?

राज्य का हर दूसरा छात्र अच्छे-अच्छे प्रशासनिक पदों पर और उस राज्य की ग़रीबी जस की तस! 
यह मुद्दा तो संसद-भवन में कई विचारणीय प्रश्न खड़ा करता है कि ये सफल छात्र गए कहाँ? यदि इनकी उन्नति हुई तो उस राज्य और क़स्बे की क्यों नहीं?

    हो सकता है उस छात्र ने भविष्य में केवल अपने ही भविष्य की कामना की हो और उस तड़पती, सहमी-सहमी ग़रीबी की तरफ़ से अपना मुँह फेर लिया हो! अब प्रश्न तो कई खड़े होते हैं, चाहे इसे लेकर उसी संसद में जूता-चप्पल भी चलवा लो। 

परंतु शर्त है, केवल आप देख-दाखकर कोई कोना होशियारी से पकड़ लेना! क्या पता, कोई फटा जूता आपके ही सर न फूट जाए। 
    अब चिंतामणि महतो ने तो अपनी सीट पकड़ी ही है रेलवे की, और मुद्दा जो पकड़ा है सो अलग। 
क्या बात करते हैं! चिंतामणि जी अब इसकी शिकायत करें भी तो किससे करें! ट्रेन की सुझाव-पेटिका तो कल रात ही दिल्ली और यू.पी. के बीच बॉर्डर पर ही उड़ा ली गई! 

     और वैसे भी, कल हम मोहल्ले का अख़बार इधर-उधर पलट रहे थे तभी मालूम चला कि हमारा आर.टी.आई. थोड़ा बीमार चल रहा है। अब क्रोसिन तो ली थी बिना चिकित्सकीय सलाह के। 
ईश्वर ही जाने क्या हुआ है, रात से ही पतला दस्त निरंतर लगा रहता है और पानी की टंकी में भी लीकेज है! पता चला, उधर हम शक्तिमान बनके आर.टी.आई. डाले और इधर कउनो ससुर टंकी का पानी ही बंद कर दिए!

 अरे भइ, हम तो अपने-आप ही शौचालय किए बिना दम तोड़ देंगे! अब चिंतामणि महतो तो आर.टी.आई. डाल ही दें परंतु इसमें भी हमें कौन-सी मनरेगा वाली रोज़गार गारंटी मिल ही जाएगी। अब उधर राजा जी की हवेली ख़ाली पड़ी है। नौबत तो यहाँ तक आ गई है कि राजा साहेब भी अपने-आप को कभी-कभार फ़कीर बता ही देते हैं रेड-कॉर्पेट पर चलते हुए! 

    अब आप ही बताइए! इसमें हमारे भोले-भाले राजा साहेब का क्या दोष! अब बोगी में बैठे सभी यात्रियों की नींद तो हराम हो ही चुकी है और दबे मुँह सभी चिंतामणि महतो को उत्पाती बताने पर तुले हुए हैं। और चिंतामणि महतो इस कीड़ेयुक्त भोजन को खाकर सोने वाले बोगी की समस्त प्रजा के बीच क्रांति का बिगुल फूँके भी तो कैसे फूँके! 
पता चला,उधर बोगी की बत्ती गुल हुई और इधर राजा के प्रशंसक हमारे चिंतामणि महतो को कोने में ले जाकर ठेंप दिए! 
अब रिस्क तो है!
क्रांति का बिगुल फूँकने में रिस्क तो है!
एकदम है!
सौ टका है!
इतिहास ग़वाह है इसका!

   अरे, मैं तो कहता हूँ कि हमें उन यूरोपियों से कुछ सीखना चाहिए ही चाहिए। अब बताइए, पैरों में दुइ-ठो लट्टु बाँधकर गली-गली कूदते-फिरते हैं यह कहते हुए-
"नो रिस्क!"
"नो गेन!"
अब इन ससुरों को कौन समझाए कि हमरे देश में रिस्क तो है, परंतु 'गेन' तो गेम में चेंज हो गया है। और गेम भी हम नहीं ऊ 'व्हाइट-कुर्ता' वाला रंगीला महाराज खेलता है। 

       अरे चिंतामणि जी, शुकर मनाइए कि आप ट्रेन में हैं। कम से कम उल्टा-सीधा कोने वाली सीट पर विराजमान तो हैं नहीं तो पटरी का कोई भरोसा नहीं। पता नहीं कब-कहाँ से मालगाड़ी नागिन-डांस करती हुई जादू की तरह आ जाए और आप फ़ोकट में लपेटे जाएँ! तब पनीर-चावल तो छोड़िए, रोटी भी नहीं नसीब होगी आपके पूर्वजों को। फिर करते रहना पिंड-दान गया जाकर!

        हाँ, एक बात की गारंटी मैं अवश्य लेता हूँ कि इसके बाद आपके किरिया-करम की व्यवस्था की ज़िम्मेदारी देश के हुक्क़मरान अवश्य उठा लेंगे। चार-पाँच लाख़ तो आपके बेरोज़गार निक्कम्मे लौंडे को भी मिल ही जाएगा। अरे इसी बहाने दहेज़ की मोटी रक़म तो मिलेगी। 
पर अफ़सोस! आशीर्वाद देने हेतु आपकी गरिमामयी अनुपस्थिति सभी घरातियों और बारातियों को बहुत रुलाएगी। 

अरे चिंतामणि जी, हमरी मानिए तो खा ही लीजिए रेलवे का खाना! वैसे भी, हमारे महान विद्वानों ने कहा है,
"कम खाओ, ग़म खाओ!"
परंतु एक तरफ़ यह भी सोचिए कि हमने कितना और किस कदर विकास किया है! 

बताइए, सड़क से पटरी पर आ गए! 
बस अब हवाई जहाज़ से पैराशूट पर आना बाक़ी रह गया है! 

हमारी मानिए, बोगी की लाइट बुझ गई है, अब आप भी सो ही जाइए! 
"लोकतंत्र तो सो ही रहा है अफ़ीम माफ़ियाओं का अफ़ीम खाकर!" क्योंकि अब 
"आवाज़ मैं न दूँगा!"                 
                     
                                                              
                    

Wednesday 6 May 2020

अब तुम्हरे हवाले वतन साथियों






अब तुम्हरे हवाले वतन साथियों ( व्यंग्य ) 


      देवासुर संग्राम अपने चरम पर था! लोग अपने-अपने घरों में मथनी और मिक्सर ग्राइंडर के बलबूते अपने-अपने हिसाब से समुद्र-मंथन में तल्लीन थे। देवता मस्त नहा-धोकर असुरों पर पुष्पवृष्टि करने हेतु आयुर्विज्ञान संस्थान की दूसरी मंज़िल पर बड़े ही श्रद्धापूर्वक गंधर्व राजाओं एवं मंत्रियों के साथ गले में गला डालकर खड़े थे। 

इधर मंथन का लाइव टेलीकास्ट, टेलीविजन चैनलों पर दे-धपा-धप 'गोरी-चिकनी त्वचा में निख़ार केवल दस दिनों में' वाले विज्ञापन के साथ फ़्लैश कर रहा था। 

      राज्य की लाइब्रेरी लोगों के अंतिम विदाई हेतु निरंतर प्रतीक्षारत थी। तभी मोहनलाल गरजे-
"मियाँ बुनियादी!"
"आजकल हमारे घर की अर्थ और व्यवस्था तनिक धीमी पड़ती नज़र आ रही है!"
"तुम कउनो हमें उपाय सुझाओ!"
"ससुर चालीस-चौरासी दिन से ऊपर हो गए अपने संडास की कुंडी लगाए।"
"हमरी सासू माँ पसरी हैं घोड़ा बेचकर हमरे सर पर बिना तेल पानी के।"
"चालीस दिन पहले न्यूज़पेपर में पढ़ा रहा हमने कि घर में कोई मंथन चल रहा है।"
"अमृत निकलेगा!"
"आख़िर चालीस दिन बीत गए हमको मैगी की पूँछ पकड़ते-पकड़ते!"
"ससुरी हाथ न आई।"
"पीसे हुए आटे में काली फफूँद लग पड़ी है।"
"रसोईं और पेट दोनों की गैस डामाडोल है।"

मियाँ बुनियादी अपनी बहती हुई अविरल नाक अपने गमछे में पौंछते हुए-
"अरे ठहरो मोहनलाल!"
"देखते नहीं, मंथन कम्पलीट हो गया है।"
"मधु निकलकर सड़कों पर जहाँ-तहाँ बहने को तैयार है।"
"मधु के प्रेमी उसके प्रेम में इस क़दर डूब रहे हैं कि तुम्हरे घर की अर्थ क्या, पड़ोसी की व्यवस्था भी ऊपर आ जाएगी और वो भी बिना कंकड़ डाले!"
"माना कि नंगे पैरों में कंकड़ चुभते अवश्य हैं परंतु उसकी चुभन भी लोकतंत्र को 'फोक-डांस पर गज़ब नचवाती है।"
"अब भइ मोहनलाल, प्यालीभर विस्की की क़ीमत तुम क्या जानो!"
"और वैसे भी, बच्चन साहेब की भविष्यवाणी तो आकाशवाणी होनी ही थी। 
"हम तो कहते हैं, ई ससुरा लॉकडाउन के पश्चात राष्ट्र के इन पियक्कड़ कर्णधारों को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया जाना चाहिए।"

"अरे मियाँ बुनियादी!"
"कल से ही हमरी बकरी कम्मो भी अनशन पर बैठी हुई है।"
"कहती है, हमको भी दो पैग पटियाला दिलवाओ!"
"नहीं तो हम दूध नाही देंगे!"

"अब बताओ मियाँ!"
"हमको क्या पता रहा कि ई दो ही दिन में 'मधु के चढ़ते हुए सितारे, हम तो हुए पराए' दाम सत्तर फ़ीसदी बढ़ जाएँगे।"
"अब तो इस बकरी के मूक आंदोलन ने हमरे घर का सारा सिस्टम ही बिगाड़कर रख दिया है।"
"उधर कम्मो को आंदोलनरत देख मोहल्ले की सभी बकरियाँ भी उसके साथ सड़क के चौराहे पर मोर्चा खोले पड़ी हैं!"

"अरे मोहनलाल!"
"हमको पता है।"
"ई सब कारस्तानी ऊ झटपटिया पत्रकार का है।"
"उसी ने बनी-बनाई खीर में क्रांति का नींबू निचोड़ा है।"

"परंतु मियाँ बुनियादी!"
"हमें तनिक बताओ!"
"यदि ये बकरियाँ कहीं जंतर-मंतर पर पहुँच गईं तो!"
"और अनशन करते-करते दम तोड़ गईं तो!"
"ज़िंदगीभर की हमरी सारी बनी-बनाई इज़्ज़त जंतर-मंतर पर कीचड़ की तरह धुल जाएगी।"

"अरे मोहनलाल!"
"तुम भी बड़ी बचकानी बातें करते हो।"
"अरे ये दो-दिन का फ़ितूर है, सब उतर जाएगा।"

"अरे मियाँ बुनियादी!"
"रमुआ बता रहा था कि कल उसकी बकरी शीला की अतड़ियाँ पलटने लगीं थीं।"
"आज भोर में उसे साँस लेने में कुछ तकलीफ़ भी हो रही थी।"
"हमको तो डर है कहीं 'कोरोना प्यारी महामारी' के संदेह में हमरा पूरा परिवार ही न लपेटे में आ जाए!"
"और सुना है, मोहल्ले के 'क्वारंटीन सेंटर' के शौचालय का लोटा कउनो चोर बेच खाए!"
"अब का हमको पेपर से ही काम चलाना पड़ेगा!"