Saturday 9 May 2020

आवाज़ मैं न दूँगा! ( व्यंग्य )






आवाज़ मैं न दूँगा! ( व्यंग्य )


ससुर आवाज़ के चक्कर में कितनों ने अपनी आवाज़ गँवाई! कितनों की आवाज़ दबाई गई, और जो न दबाई जा सकी उसका भी हमारे हज़रत ने क्या ख़ूब सोल्यूशन निकाला! 

"बाबू मोशाय.....!" 
       "पटरी और परिवर्तन दोनों पर कभी भी प्रगति की रेल आ सकती है!" संभलना तो आपको है क्योंकि एक तो रोज़ संभाली और बक़ायदा ठोकी-कसी जाती है, हथौड़ी-छेनी से। 
दूसरी, यदि न संभली तो ज़माना उसे काफी नज़दीक से संभलना सीखा देता है। 

अब अपने चिंतामणि महतो को ही ले लीजिए, ज़नाब रेलवे की स्लीपर बोगी में खाने की शिकायत लेकर अतिनिर्भीक वेंडर महोदय से उलझ पड़े। 
बात हाथा-पाई तक आ पहुँची। पड़ोसी यात्रियों ने मामले को बढ़ता देख लोकतंत्र की तरह मसले को दबाने की भरपूर कोशिश की परंतु चिंतामणि महतो के बाग़ी तेवर देख सबने अपनी-अपनी सीट; चुपचाप चुनाव के हारे हुए और फर्ज़ी वोटरों की तरह लतियाए गए निरपराध एवं निर्जीव हो चुके प्राणी के समान ग्रहण की। 

    तभी लोकतंत्र की प्रखर आवाज़ को और प्रखरता के साथ बुलंद करते हुए एक सीट वाले कुर्सी पर बैठे तीन महानुभावों में से बीच वाले यात्री महोदय ने आवाज़ लगाई-
"वाह!"
"क्या बात है साहब!"
"बड़े दिनों बाद ऐसे क्रांतिकारी विचारों को सुन रहा हूँ, नहीं तो मजाल है कोई भी ऐरा-ग़ैरा इस सड़ी-गली ध्वस्त हो चुकी सरकारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करे!"   
"मियाँ आप तो रियल हीरो लगते हो!"
"बताइए!"
"चावल और पनीर की करी से 'बाल की खाल' नोच डाले।"
"और रुमाली रोटी को तान-तानकर ट्यूब का टुकड़ा बना डाला!"
"बताइए, सरकारी तंत्र की ऐसी फ़जीहत!"
"माशा अल्लाह!"
"सच बताऊँ तो आपमें उस हॉलीवुड वाले 'कप्तान अमेरिका' वाले नायक की झलक उभरती है!"

     इतना कहकर उस यात्री महोदय ने देश की घिसी-पीटी अर्थव्यवस्था के समान अपनी बत्तीसी निपोड़ दी। महोदय जी की बत्तीसी देखकर लोकतंत्र के महानायक चिंतामणि महतो जी का लगभग आधा लीटर ख़ून मानो म्युनिसिपल्टी द्वारा गली-मोहल्ले में लगाए गए बूढ़े हो चुके हैण्डपम्प के पानी के समान वहीं घटनास्थल पर ही सूख गया हो!

अब वैसे भी, सूखे होते तालाब और मृत्यु की गोद में पड़ी अंतिम श्वास लेती पुरा-पुरातन नदियों की फ़िक्र ही किसे है। 
   हाँ, मंत्रालय बनवा दो! कम से कम उन ग़रीब ए.सी. वालों के घरों में दो बख़त का पिज़्ज़ा तो आएगा। परंतु परिस्थिति बड़ी विकट है! इस कोरोना करमजली ने इन बेचारे पिज़्ज़ा-बर्गर उपभोक्ताओं और, डार्लिंग आज कहीं -किसी पंच-सितारा होटल में चलें, बैंगन का भुर्ता खाने। बड़ा दिन हो गया है उस कम्बख़त मुर्ग़े की टाँग निचोड़े!
 नाशुकरा कहीं का, हमेशा क्रांतिकारी मसलों को लेकर चौराहों पर बाँग दिया करता था। 

 "क्यों डार्लिंग!"
"क्या कहते हो?"
"अरे कहूँगा क्या!"

    कलक्टर नहीं था तब तक तो वही शांताराम के ढाबे पर रोटियाँ तोड़ता था और कभी-कभी रात में तगड़ी भूख लगने पर पेट पर कसकर अपना फटा गमछा बाँध लिया करता था परंतु पढ़ाई रातभर किया करता था ताकि आज का यह पंच-सितारा वाला दिन देख सकूँ। 
आख़िर मुद्दा वही फटा-पुराना, देश के उन नामी-गिरामी राज्यों से जहाँ हर दूसरा छात्र लाख परेशानियाँ झेलते हुए आख़िर कलक्टर तो बन ही जाता है परंतु यह माजरा क्या है?

राज्य का हर दूसरा छात्र अच्छे-अच्छे प्रशासनिक पदों पर और उस राज्य की ग़रीबी जस की तस! 
यह मुद्दा तो संसद-भवन में कई विचारणीय प्रश्न खड़ा करता है कि ये सफल छात्र गए कहाँ? यदि इनकी उन्नति हुई तो उस राज्य और क़स्बे की क्यों नहीं?

    हो सकता है उस छात्र ने भविष्य में केवल अपने ही भविष्य की कामना की हो और उस तड़पती, सहमी-सहमी ग़रीबी की तरफ़ से अपना मुँह फेर लिया हो! अब प्रश्न तो कई खड़े होते हैं, चाहे इसे लेकर उसी संसद में जूता-चप्पल भी चलवा लो। 

परंतु शर्त है, केवल आप देख-दाखकर कोई कोना होशियारी से पकड़ लेना! क्या पता, कोई फटा जूता आपके ही सर न फूट जाए। 
    अब चिंतामणि महतो ने तो अपनी सीट पकड़ी ही है रेलवे की, और मुद्दा जो पकड़ा है सो अलग। 
क्या बात करते हैं! चिंतामणि जी अब इसकी शिकायत करें भी तो किससे करें! ट्रेन की सुझाव-पेटिका तो कल रात ही दिल्ली और यू.पी. के बीच बॉर्डर पर ही उड़ा ली गई! 

     और वैसे भी, कल हम मोहल्ले का अख़बार इधर-उधर पलट रहे थे तभी मालूम चला कि हमारा आर.टी.आई. थोड़ा बीमार चल रहा है। अब क्रोसिन तो ली थी बिना चिकित्सकीय सलाह के। 
ईश्वर ही जाने क्या हुआ है, रात से ही पतला दस्त निरंतर लगा रहता है और पानी की टंकी में भी लीकेज है! पता चला, उधर हम शक्तिमान बनके आर.टी.आई. डाले और इधर कउनो ससुर टंकी का पानी ही बंद कर दिए!

 अरे भइ, हम तो अपने-आप ही शौचालय किए बिना दम तोड़ देंगे! अब चिंतामणि महतो तो आर.टी.आई. डाल ही दें परंतु इसमें भी हमें कौन-सी मनरेगा वाली रोज़गार गारंटी मिल ही जाएगी। अब उधर राजा जी की हवेली ख़ाली पड़ी है। नौबत तो यहाँ तक आ गई है कि राजा साहेब भी अपने-आप को कभी-कभार फ़कीर बता ही देते हैं रेड-कॉर्पेट पर चलते हुए! 

    अब आप ही बताइए! इसमें हमारे भोले-भाले राजा साहेब का क्या दोष! अब बोगी में बैठे सभी यात्रियों की नींद तो हराम हो ही चुकी है और दबे मुँह सभी चिंतामणि महतो को उत्पाती बताने पर तुले हुए हैं। और चिंतामणि महतो इस कीड़ेयुक्त भोजन को खाकर सोने वाले बोगी की समस्त प्रजा के बीच क्रांति का बिगुल फूँके भी तो कैसे फूँके! 
पता चला,उधर बोगी की बत्ती गुल हुई और इधर राजा के प्रशंसक हमारे चिंतामणि महतो को कोने में ले जाकर ठेंप दिए! 
अब रिस्क तो है!
क्रांति का बिगुल फूँकने में रिस्क तो है!
एकदम है!
सौ टका है!
इतिहास ग़वाह है इसका!

   अरे, मैं तो कहता हूँ कि हमें उन यूरोपियों से कुछ सीखना चाहिए ही चाहिए। अब बताइए, पैरों में दुइ-ठो लट्टु बाँधकर गली-गली कूदते-फिरते हैं यह कहते हुए-
"नो रिस्क!"
"नो गेन!"
अब इन ससुरों को कौन समझाए कि हमरे देश में रिस्क तो है, परंतु 'गेन' तो गेम में चेंज हो गया है। और गेम भी हम नहीं ऊ 'व्हाइट-कुर्ता' वाला रंगीला महाराज खेलता है। 

       अरे चिंतामणि जी, शुकर मनाइए कि आप ट्रेन में हैं। कम से कम उल्टा-सीधा कोने वाली सीट पर विराजमान तो हैं नहीं तो पटरी का कोई भरोसा नहीं। पता नहीं कब-कहाँ से मालगाड़ी नागिन-डांस करती हुई जादू की तरह आ जाए और आप फ़ोकट में लपेटे जाएँ! तब पनीर-चावल तो छोड़िए, रोटी भी नहीं नसीब होगी आपके पूर्वजों को। फिर करते रहना पिंड-दान गया जाकर!

        हाँ, एक बात की गारंटी मैं अवश्य लेता हूँ कि इसके बाद आपके किरिया-करम की व्यवस्था की ज़िम्मेदारी देश के हुक्क़मरान अवश्य उठा लेंगे। चार-पाँच लाख़ तो आपके बेरोज़गार निक्कम्मे लौंडे को भी मिल ही जाएगा। अरे इसी बहाने दहेज़ की मोटी रक़म तो मिलेगी। 
पर अफ़सोस! आशीर्वाद देने हेतु आपकी गरिमामयी अनुपस्थिति सभी घरातियों और बारातियों को बहुत रुलाएगी। 

अरे चिंतामणि जी, हमरी मानिए तो खा ही लीजिए रेलवे का खाना! वैसे भी, हमारे महान विद्वानों ने कहा है,
"कम खाओ, ग़म खाओ!"
परंतु एक तरफ़ यह भी सोचिए कि हमने कितना और किस कदर विकास किया है! 

बताइए, सड़क से पटरी पर आ गए! 
बस अब हवाई जहाज़ से पैराशूट पर आना बाक़ी रह गया है! 

हमारी मानिए, बोगी की लाइट बुझ गई है, अब आप भी सो ही जाइए! 
"लोकतंत्र तो सो ही रहा है अफ़ीम माफ़ियाओं का अफ़ीम खाकर!" क्योंकि अब 
"आवाज़ मैं न दूँगा!"                 
                     
                                                              
                    

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