Wednesday 6 May 2020

अब तुम्हरे हवाले वतन साथियों






अब तुम्हरे हवाले वतन साथियों ( व्यंग्य ) 


      देवासुर संग्राम अपने चरम पर था! लोग अपने-अपने घरों में मथनी और मिक्सर ग्राइंडर के बलबूते अपने-अपने हिसाब से समुद्र-मंथन में तल्लीन थे। देवता मस्त नहा-धोकर असुरों पर पुष्पवृष्टि करने हेतु आयुर्विज्ञान संस्थान की दूसरी मंज़िल पर बड़े ही श्रद्धापूर्वक गंधर्व राजाओं एवं मंत्रियों के साथ गले में गला डालकर खड़े थे। 

इधर मंथन का लाइव टेलीकास्ट, टेलीविजन चैनलों पर दे-धपा-धप 'गोरी-चिकनी त्वचा में निख़ार केवल दस दिनों में' वाले विज्ञापन के साथ फ़्लैश कर रहा था। 

      राज्य की लाइब्रेरी लोगों के अंतिम विदाई हेतु निरंतर प्रतीक्षारत थी। तभी मोहनलाल गरजे-
"मियाँ बुनियादी!"
"आजकल हमारे घर की अर्थ और व्यवस्था तनिक धीमी पड़ती नज़र आ रही है!"
"तुम कउनो हमें उपाय सुझाओ!"
"ससुर चालीस-चौरासी दिन से ऊपर हो गए अपने संडास की कुंडी लगाए।"
"हमरी सासू माँ पसरी हैं घोड़ा बेचकर हमरे सर पर बिना तेल पानी के।"
"चालीस दिन पहले न्यूज़पेपर में पढ़ा रहा हमने कि घर में कोई मंथन चल रहा है।"
"अमृत निकलेगा!"
"आख़िर चालीस दिन बीत गए हमको मैगी की पूँछ पकड़ते-पकड़ते!"
"ससुरी हाथ न आई।"
"पीसे हुए आटे में काली फफूँद लग पड़ी है।"
"रसोईं और पेट दोनों की गैस डामाडोल है।"

मियाँ बुनियादी अपनी बहती हुई अविरल नाक अपने गमछे में पौंछते हुए-
"अरे ठहरो मोहनलाल!"
"देखते नहीं, मंथन कम्पलीट हो गया है।"
"मधु निकलकर सड़कों पर जहाँ-तहाँ बहने को तैयार है।"
"मधु के प्रेमी उसके प्रेम में इस क़दर डूब रहे हैं कि तुम्हरे घर की अर्थ क्या, पड़ोसी की व्यवस्था भी ऊपर आ जाएगी और वो भी बिना कंकड़ डाले!"
"माना कि नंगे पैरों में कंकड़ चुभते अवश्य हैं परंतु उसकी चुभन भी लोकतंत्र को 'फोक-डांस पर गज़ब नचवाती है।"
"अब भइ मोहनलाल, प्यालीभर विस्की की क़ीमत तुम क्या जानो!"
"और वैसे भी, बच्चन साहेब की भविष्यवाणी तो आकाशवाणी होनी ही थी। 
"हम तो कहते हैं, ई ससुरा लॉकडाउन के पश्चात राष्ट्र के इन पियक्कड़ कर्णधारों को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया जाना चाहिए।"

"अरे मियाँ बुनियादी!"
"कल से ही हमरी बकरी कम्मो भी अनशन पर बैठी हुई है।"
"कहती है, हमको भी दो पैग पटियाला दिलवाओ!"
"नहीं तो हम दूध नाही देंगे!"

"अब बताओ मियाँ!"
"हमको क्या पता रहा कि ई दो ही दिन में 'मधु के चढ़ते हुए सितारे, हम तो हुए पराए' दाम सत्तर फ़ीसदी बढ़ जाएँगे।"
"अब तो इस बकरी के मूक आंदोलन ने हमरे घर का सारा सिस्टम ही बिगाड़कर रख दिया है।"
"उधर कम्मो को आंदोलनरत देख मोहल्ले की सभी बकरियाँ भी उसके साथ सड़क के चौराहे पर मोर्चा खोले पड़ी हैं!"

"अरे मोहनलाल!"
"हमको पता है।"
"ई सब कारस्तानी ऊ झटपटिया पत्रकार का है।"
"उसी ने बनी-बनाई खीर में क्रांति का नींबू निचोड़ा है।"

"परंतु मियाँ बुनियादी!"
"हमें तनिक बताओ!"
"यदि ये बकरियाँ कहीं जंतर-मंतर पर पहुँच गईं तो!"
"और अनशन करते-करते दम तोड़ गईं तो!"
"ज़िंदगीभर की हमरी सारी बनी-बनाई इज़्ज़त जंतर-मंतर पर कीचड़ की तरह धुल जाएगी।"

"अरे मोहनलाल!"
"तुम भी बड़ी बचकानी बातें करते हो।"
"अरे ये दो-दिन का फ़ितूर है, सब उतर जाएगा।"

"अरे मियाँ बुनियादी!"
"रमुआ बता रहा था कि कल उसकी बकरी शीला की अतड़ियाँ पलटने लगीं थीं।"
"आज भोर में उसे साँस लेने में कुछ तकलीफ़ भी हो रही थी।"
"हमको तो डर है कहीं 'कोरोना प्यारी महामारी' के संदेह में हमरा पूरा परिवार ही न लपेटे में आ जाए!"
"और सुना है, मोहल्ले के 'क्वारंटीन सेंटर' के शौचालय का लोटा कउनो चोर बेच खाए!"
"अब का हमको पेपर से ही काम चलाना पड़ेगा!"           
                                        
                

5 comments:

  1. लाजवाब लेखन।

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  2. बहुत सुन्दर हास्य व्यंगमिश्रित लघु कथा।

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  3. वाह!ध्रुव जी ..क्या बात है । चारों ओर मधु बटोरने की अफरा -तफरी मची है ...कोई रह ना जाए ..अरे भाई समझो ,जान है तो जहान ..कही इस कोरोनवा की चपेट में आ गए तो ....ये मदिरा यहीं धरी रह जाएगी ।

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  4. वाह सार्थक व्यंग्य

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  5. सुना है मोहल्ले में कवार्नती सेंटर के शौचालय का लौटा कौनो चोर बेच खाए अबका हमको पेपर से ही काम चलाना पड़ेगा
    सटीक व्यंगात्मक

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