Wednesday 20 May 2020

जागते रहो! ( व्यंग्य )




जागते रहो! ( व्यंग्य




          का बात करते हो सेठ जी, लोकतंत्र में रोटी तो नाहीं मिल रही और तुम फ़्राईड चावल की बात करते हो!
हमें अच्छी तरह याद है, साहेब ने कहा था, "हमारे गल्ला-गोदाम में दोनों बख़त ख़ातिर अनाज ठूँस-ठूँसकर भर दिया गया है और चूहे वहाँ से गाँव की तरफ़ पलायन कर गए हैं।" 

जबकि अभी कल ही एक न्यूज़ चैनल पर ख़बर बाँचनेवाले ख़बरबाँचिए दिखा रहे थे कि दस-पंद्रह चूहे गल्ला-गोदाम के बाहर मृत अवस्था में पाए गए हैं।

         जबकि एक पुलिसवाला तो कहते-कहते रो पड़ा कि चूहों की मौत भूख से तड़प-तड़पकर हो गई रही जैसा कि पोस्टमॉर्टम-रिपोर्ट में लिखा गया है! उधर पोस्टमॉर्टम करने वाले डॉक्टर बता रहे थे कि भूख की वज़ह से इन चूहों की अतड़ियों में घाव बन गए थे जिससे कि इनमें रक्त के थक्के जम गए। 

अब हम ठहरे कोरे अनपढ़! "न आगे नाथ न पीछे टिड्डी", का करेंगे इस बेकार पढ़ाई-लिखाई का?
 "पैदा हुए, बाप ने अँगूठा लगा दिया।" 
"बाप मरे, हमने अँगूठा लगा दिया।" 
"जब हम मरेंगे, बेटा अँगूठा टिका देगा।" 

अब चूहे मरे कैसे? ई तो साहेब जी और उनके पिट्ठू लोग जानें! बड़े नेकदिल थे बेचारे, कहते थे यदि अँगूर में सुई चुभो दी जाए तो किशमिश बन जाता है और वो भी दुइ हफ़्तों में। 

            ससुर हम भी सोचे कि ई तो अमीर बनने का बड़ा ही नायाब तरीक़ा है। बताइए, अस्सी रुपए किलो अँगूर से चार-सौ रुपए किलो किशमिश झटपट तैयार! गपागप हमने भी दस किलो अँगूर में भरी दुपहरी सुइयाँ चुभों डालीं और छोड़ दिए कड़ी धूप में कोयले को हीरा बनने ख़ातिर। अब जो होना था वो तो होकर रहेगा, सो गया दिनभर के लिए घोड़ा बेचकर। 
अब हमारे कान में थोड़े न आकाशवाणी हो रही थी "मौसम आज बड़ा बेईमान होगा कृपया अपने-अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करें! अब बेईमान था तो था, दिखा दिया अपना बेईमानीपन! हमरे सारे अँगूर लँगूर की शक़्ल के दिखने लगे और तो और, दो-तीन दिन में उनसे बास भी आने लगी। 

         अब यदि मौसम ससुर बेईमान निकला तो इसमें साहेब जी का क्या दोष! दोष तो सारा हमरा रहा, चले थे हफ़्तेभर में सितार-ए-हिंद बनने! 

इतिहास उठाकर देख लीजिए, नहीं तो टुकड़े-टुकड़े गैंग वालों की लाइब्रेरी से पोथी निकालकर पढ़ लीजिए। हो सकता है उलट-फेर हुआ हो इतिहास की लाइब्रेरी में, परन्तु यह खेला हम काहे करें भाई? हमारी कौन सी भैंसिया बिकी जा रही थी!
अब फ़िरंगियों ने मुग़लों पर आक्रमण किया कि मुग़लों ने हिंदू राजाओं पर या हिंदू राजाओं ने बौद्धिष्टों पर, ये तो समय ही जाने। 

 "मैं समय हूँ।"
"मानव की भूख से लेकर उसकी चिर-निद्रा तक, उसकी चिर-निद्रा से लेकर उसके जागने तक मैं निरंतर ब्रह्मांड में कलैया खाता रहता हूँ, न ही मेरा कोई आदी है और न ही अदरक, और न ही कोई दूध वाली चाय जिसकी देश में उत्पादन से ज़्यादा सप्लाई है।"  अरे, इसमें कौन सी बड़ी बात है, बस सफ़ेदी का चमत्कार और लगातार उतारते जाओ नौनिहालों के मुँह में ताबड़तोड़! अब एक से दो साल का बच्चा का बताएगा कि गोरस का स्वाद कैसा होता है।  

          कान खोलकर सुन लीजिए, बनारसी भँगेड़ी हूँ, भाँग बहुत खाता हूँ। यक़ीन न आए तो आँखें चेक कर लीजिए, लाल ही दिखेंगी, सूर्यास्त के बाद भी। पाश्चात्य सभ्यता के कट्टर-विरोधी जो ठहरे, देशी पीकर मर जाएंगे उसी दशाश्मेध घाट पर परंतु इंग्लिश, हाथ टूट जाए जो मुँह से तनिक भी बास आए। 

यदि हमपर पूर्णतः विश्वासमत न हो तो पूछ लीजिए हमरे बगल वाले जिला-जौनपुर के प्राइमरी पाठशाला के हेडमास्टर साहेब से, बड़े ही धर्मात्मा मनई हैं। बताइए, हज़रत की करामात! पाठशाला के बच्चों को दूध कम न पड़ जाए, पानी में ही दूध मिलाते देखे गए, और खाने में रोटी के साथ नमक़ मुफ़्त। 

     अब बताइए, यहाँ ज़हर खाने के पैसे भी आपको कोई न दे और वहाँ ये महात्मा नमक़ मुफ़त में बाँट रहे थे। हम आपको सौ-प्रतिशत गारंटी दे सकते हैं कि ई सब राजा साहेब के शिक्षा के क्षेत्र में बढ़-चढ़कर प्रचार-प्रसार करने से हुआ है नहीं तो एक समय था जब यहाँ की भैंसिया भी "काला अक्षर भैस बराबर'' पढ़ा करती थीं।
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बताइए, एक वो ज़माना था जब मुग़लों के दरबार में नवरत्नों की बड़ी पूँछ हुआ करती थी, और आज ये दिन ईश्वर हमें दिखाने पर तुला हुआ है कि राजा साहेब के सगे-संबंधी राजकोष से उधार क्या ले लिए कि राज्य के सारे एक नंबर के अफ़ीमची उन्हें 'द ग्रेट दरुअल' बताने लगे। 

      ख़ैर, वो तो भला हो उस केवट महाराज का जिसने सावन की उस घोर-डरावनी रात में उन्हें सीमा-पार उनके जन-धन खाते-पीते सहित राजा साहेब के गुप्त-कालीन गुप्त-गुफा में ले जाकर बैठा दिया। 

अरे हम कहते हैं, देश पूछता है, ऊ चोर-उचक्का नहीं थे। ससुरे मुहरबंद रहे! हम तो कहते हैं राजा साहेब राज्य में नौ-ठो रत्न नहीं अठारह-सौ रतन रखिए!
उनके फिक्स डिपॉज़िट करवाईए! 
उनके जन-धन खाते खुलवाईए!
उन्हें सस्ती सब्सिडी वाली गैस मुहैया करवाईए!

और तो और राज्य के मंत्रिमंडल में उन्हें किसी विभाग का मंत्री ही बना दीजिए, फिर देखिए उनमें कैसी फ़कीरी दिखती है और वे कैसे भागते हैं किसी गुप्त-कालीन गुप्त-गुफा में! अरे, इस्तेमाल करके तो देखिए फिर विश्वास करिएगा नहीं तो। 

    हम तो यहाँ तक कहन रहेंन, लाल कुर्ती ख़रीद दो, ट्रेनें रुकवा देंगे। राज्य में इंटरनेट बंद करवा दो, दुइ मिनट में मुग़ल-ए-हिंदू करवा देंगे। आप चिंता काहे करते हो, तनिक गाजर-मूली की तरह कटकर सलाद तो बनने दो। हुज़ूर फेस आइडेंटिफिकेशन करवा देंगे। तनिक क्रोनोलॉजी समझिए साहेब!

भरोसा रखिए, सत्तर के दशक में भी समाजवाद उसी टीले पर खड़ा था जहाँ परसाई जी उसे डांट-डपटकर छोड़ आए थे और आज भी वहीं खड़ा-खड़ा मक्खियाँ उड़ा रहा है!  ससुर हिम्मत ही नहीं हुई उसकी कि तनिक भी दायें-बायें करे। 

          अब गारंटी का ज़माना तो चला गया परंतु आपको हम वारंटी का वादा अवश्य दे सकते हैं कि हमारा भविष्य और हमारी चुलबुली अर्थव्यवस्था दोनों ही अब ज़िम्मेदार हाथों में है। हाँ, वो अलग बात है कभी-कभी लड़खड़ा सकती है। वो क्या है कि पीने के बाद मियाँ झुम्मन अपने होश-ए-मुशायरा ज़रा खो देते हैं। परंतु अब हमारी अर्थव्यवस्था बिटिया के दोनों पैर और कोमल हाथ कुल घी-भरे कढ़ाई में डूबे पड़े हैं। 

राजा साहेब भी लाल कॉर्पेट पर सुबह-सुबह टहलते हुए यू-ट्यूब के प्राइम-टाइम पर कुमार साहेब को देख ही लिया करते हैं और धीरे से अपने मन की बात आकाशवाणी को बता दिया करते हैं। ताज़्जुब तो हमें तब होता है जब वे सहयोगियों से ज़्यादा विरोधियों के यू-ट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करके बेल-आइकॉन धपाक से दबाते हैं। 

   हमको तो सदैव चिंता लगी रहती कि उन चूहों के भुखमरी का केस कहीं विपक्ष वाले आत्महत्या में ना बदल दें, और उधर राजा साहेब भी कभी-कभी अज़ीबो-ग़रीब बीहेव करते हैं। कहते हैं "कर्म करते जाओ, फल की इच्छा हमारे संत्री पर छोड़ दो, ऊ ससुर सब संभाल लेगा, उसकी क्रोनोलॉजी बड़ी अच्छी है और यही जीवन का मर्म-गीत है।"

फिर भी हम न माने, हमने बहुत कहा राजा साहेब से कि उन ससुरे चूहों का शव यहीं मणिकर्णिका पर ही जलाएं परंतु उन्होंने साफ़ कह दिया कि इस संक्रमण की अवस्था में हम कोई भी रिस्क नहीं लेना चाहते अतः इन नामुराद चूहों के शवों को यहीं पास के गटर वाली नाली में बहा दो!

     जब मैं उन चूहों को नाली में फेंक रहा था तो उनमें से एक चूहे की नाड़ी अभी तक चल रही थी। मैंने सोचा कि इसके इलाज़ हेतु एम्बुलेंस मंगवा लेते हैं परंतु उस राष्ट्रविरोधी अधमरे चूहे ने मेरी अँगुली जमकर काट ली! आनन-फानन में मैंने उसे भी नाली में फेंक दिया और वह अपने आगे के दो-दाँत मुस्कराकर मुझे दिखाता हुआ स्वयं ही नाली में डूब गया!                                                                 


                                                                

4 comments:

  1. वाह! क्या ख़ूब लिख डाला।

    व्यंग्यनामा की शुरुआत के बधाई एवं शुभकामनाएँ। इस ब्लॉग का पहला ही व्यंग्य रोचकता के साथ अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को समेटता हुआ चिंतन की दिशा में एक शानदार हस्तक्षेप है। व्यंग्य में शालीनता का बरक़रार रहना और ज्वलंत मुद्दों को रेखांकित करते हुए कटाक्ष करना उसे सारगर्भित एवं लोकप्रिय बनाता है।

    प्रस्तुत व्यंग्य पढ़ने से लगता है बड़े धैर्यपूर्वक मुद्दों पर चिन्तनोपरांत क़लम चला है (लेखनी चली है )जो निस्संदेह अंत में पाठक के मन-मस्तिष्क में अनेक सवाल छोड़ता है चिंतन-मनन के लिए। देश-दुनिया की विकराल परिस्थितियों को व्यंग्य में शिल्पगत विशिष्टाओं के साथ समाहित करना व्यंग्यकार की मुद्दों को परखने की सूक्ष्म अवलोकन क्षमता एवं चिंतन को दर्शाती है।

    उत्कृष्ट व्यंग्य के लिए बधाई एवं शुभकामनाएँ।

    लिखते रहिए।

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  2. वाह!ध्रुव जी , प्रसिद्ध व्यंगकार बनकर ही रहेगें ..ढेरों शुभकामनाएँँ ...

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  3. आदरणीय सर सादर प्रणाम 🙏
    कमाल की लेखनी है आपकी। यह व्यंग कथा तो यूँ जान पड़ती है मानो एक के बाद आपने समसामयिक ज्वलंत मुद्दों पर सीधा प्रहार किया हो। वाह! विविध विषयों को एक में समेटकर बेहद रोचक कथा प्रस्तुत की आपने। सराहना हेतु शब्द नहीं बचे मेरे शब्दकोश में। सादर प्रणाम आपको और आपकी कलम को 🙏

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